सत्य की नाक में नकेल

Monday, May 31, 2010

जब करने को कुछ नहीं होता न। तब मैं सारी सारी रात जाग कर सच का पीछा करती हूं तो झूठ भरमाने लगता है। सच भरम जाता है या फिर इतना ऊंचा हो जाता है कि सच को साबित करने के लिए हाथों
को इतना लम्बा करना होता है कि आकाश को छू ले...सच तो आकाश की ऊंचाई रखता है न! मनन करती हूं तो सच सदैव सच्चा और मीठा लगता है।...झूठ! सच सदैव कडुवा होता है तभी तो किसी के गले नहीं उतरता। उस रात मैं कांप उठी...ठंड से या फिर झूठ को सच पर सवार
देख कर।

झूठ के सामने सत्य कितना निरीह और बौना नज़र आ रहा था। फिर देखती हूं कि अचानक सत्य झूठ के गले लग गया और पूछा-
मेरी मीत तू क्यों मुझसे भागा भागा फिरता है? ओ मेरे दुश्मन भागूं क्यों न? तू जो मेरा पीछा करता है। इसलिए तो तुझसे अनेकों बार कह चुका हूं कि...।
क्या?
कि मुझे एक डग आगे चलने दे...। झूठ ठठा कर हंस पड़ा॥सत्य पर झपट पड़ा-
छली कपटी...तुझसे एक डक पीछे हो जाऊं?॥दोनों में देर तक उठा-पटक होती रही...रात गुजरती रही...अंत में झूठ ने सोने का एक वज़नदार ढेला उठा कर सत्य के पैरों में पटक दिया। सत्य दर्द से तड़प उठा..कराह उठा और लंगड़ाता हुआ बोला-
नहीं मितवा नहीं...इसलिए नहीं कि तू पथ भूल जाए वरन इसलिए कि तुझे मेरे पीछा करने का भय न रहे।सबेरा हुआ तो विस्मय से मेरे नेत्र फट गए...सत्य के नाक में नकेल थी और झूठ मुस्कुराता हुआ उसे हांक रहा था...आह।
यह सच और झूठ के बीच की बकवास की मूक गवाह मैं अकेली नहीं ऐसे प्रेस बिरादरी में मेरे कई साथी भाई भी हैं जिनके पैरों पर झूठ सोने का एक ढेला मारकर दर्द दे रहा है।
उषा रंगीला, सेवा निवृत्त शिक्षिका

जीवनदान का शुल्क
आअश्चर्य मत करिए! क्यों कि यह भी सच है कि रेल हादसों के शिकार मृत यात्रियों के सामानों के साथ जीवीत मुसाफिर भी जीवनदाताओं के हाथों लूट लिए गए। झारग्राम के पास नक्सली विस्फोट से कालकवलित हुई ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के 147 मृतकों के अलावा सैकड़ों घायलों के सामान व कीमती जेÞवरात अब उनके पास नहीं है। खैर जान है तो जहान है। लेकिन उन स्थानीय ग्रामीणों की क्रूरता का एक दुर्दांत उदाहरण दर्द से कराहते, अपने परिजनों की मौत का मातम मनाते उन यात्रियों के दिलो-दिमाग में है। जिन्हों ने अपनों को खोया और अपनी जमा पूंजी को भी लूटते देखते रहे। लेकिन हादसे की शिकार ज्ञानेश्वरी में कुछ खुशकिस्मत यात्री भी हैं जिन्हों ने औरों को जीवनदान दिया लेकिन स्थानीय लोगों की हरकतों से सिहर भी गए। इनमें से एक यात्री देवनारायण पांडे हैं जिन्हों ने खुद का सामान तो खोया ही। दूसरे अन्य यात्रियों को भी बचाने के एवज में बचाव दल को बतौर शुल्क सोने की चेन, घड़ी और अंगूठी पर हाथ मारते देखा गया। यह कैसा शुल्क है जो मौत के मुंह से लौटाने वाली मेहनत का प्रतिफल वसूल रहे हैं। उन मां और बहनों का क्या जो खून से लथपथ हैं पर बचाने के बहाने उनके पास दौड़ने वाले मुफलिस दरअसल उनके गहनों पर नियत गाड़े हैं। अगर जीवन दान की परिभाषा ये है तो निश्चित ही मौत के दूत किसी देवदूत से कम नहीं।

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